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वीरांगना भंवरी कौर (अमरवीर गोकुला सिंह की बहन)

बृज बाला शहीद भंवरी कौर अमर शहीद गोकुल सिंह की बहिन थी. सामान्यतया यह प्रचार इतिहास में किया गया है कि गोकुलसिंह की बहिन ओर रिश्तेदारों को मुसलमान बना लिया गया था. यह तथ्य ग़लत है जो इस लेख से स्थापित होता है. यह खोजपूर्ण लेख आगरा से प्रकाशित पत्रिका जाट समाज के अगस्त 1995 में छपे लेख पर आधारित है. औरंगजेब की धर्मान्धता पूर्ण नीति सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं. दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित होने के कारण, मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा है. वहां के हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया. सन १६७८ के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला. अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्ष, गोकुलसिंह के पास एक नई छावनी स्थापित की थी. सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था. गोकुलसिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया. मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर कि

माता अमृता देवी बेनीवाल जी - एक महान जाटणी (जाट जननी)

माता अमृता देवी बेनीवाल 1787 में राजस्थान के मारवाड (जोधपुर) रियासत पर राजा अभय सिंह राजपूत का राज था। उनका मंत्री गिरधारी दास  भण्डारी था। उस समय  महराण गढ़ किले में फूल महल नाम का राजभवन का निर्माण किया जा रहा था। महल निर्माण के दौरान लकड़ियों की आवश्यकता पड़ी तो महाराजा अभय सिंह ने मंत्री गिरधारी दास  भण्डारी को लकडियों की व्यवस्था करने का आदेश दिया , मंत्री गिरधारी दास  भण्डारी  की नजर महल से करीब 24 किलोमीटर दूर स्थित गांव खेजडली पर पड़ी। मंत्री गिरधारी दास  भण्डारी  अपने  सिपाहियों के साथ  1787 में भादवा सुदी 10वीं मंगलवार के दिन  खेजडली गांव पहुंच गए। उन्होंने रामू जाट (खोड़) के व्यक्ति के खेजड़ी के वृक्ष को काटना आरंभ कर दिया। कुल्हाड़ी की आवाज सुनकर रामू खोड की पत्नी अमृता बेनीवाल घर से बाहर आई। उसने बिशनेई धर्म के नियमों का हवाला देते हुए पेड़ काटने से रोका लेकिन सिपाही नहीं माने। इस पर अमृता बेनीवाल पेड़ से चिपक गई और कहा कि पहले मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े होंगे-इसके बाद ही पेड़ कटेगा। राजा के सिपाहियों ने उसे पेड़ से अलग करने की काफी कोशिश की परंतु अमृता टस से मस नही

भरतपुर महाराजा कृष्ण सिंह (किशन सिंह)

भरतपुर महराजा कृष्णसिंह (किशन सिंह)  सन् 1925 ई. में पुष्कर में होने वाले जाट-महासभा के अधिवेशन के प्रेसीडेण्ट थे। महाराज को इस बात पर बड़ा अभिमान था कि मैं जाट हूं। वह अपने जातीय गौरव से पूर्ण थे उन्होंने कहा था-“मैं भी एक राजस्थानी निवासी हूं। मेरा दृढ़ निश्चय है कि यदि हम योग्य हों तो कोई शक्ति संसार में ऐसी नहीं है जो हमारा अपमान कर सके। मुझे इस बात का भारी अभिमान है कि मेरा जन्म जाट-क्षत्रिय जाति में हुआ है। हमारी जाति की शूरता के चरित्रों से इतिहास के पन्ने अब तक भरे पड़े हैं। हमारे पूर्वजों ने कर्तव्य-धर्म के नाम पर मरना सीखा और इसी से, बात के पीछे, अब तक हमारा सिर ऊंचा है। मेरे हृदय में किसी भी जाति या धर्म के प्रति द्वेषभाव नहीं है और एक नृपति-धर्म के अनुकूल सबको मैं अपना प्रिय समझता हूं। हमारे पूर्वजों ने जो-जो वचन दिए, प्राणों के जाते-जाते उनका निर्वाह किया था। तवारीख बतलाती है कि हमारे बुजुर्गों ने कौम की बहबूदी और तरक्की के लिए कैसी-कैसी कुर्बानियां की हैं। हमारी तेजस्विता का बखान संसार करता है। मैं विश्वास करता हूं कि शीघ्र ही हमारी जाति की यश-पताका संसार भर में फहराने

जाट वीरांगना रानाबाई के शाहस की वीरगाथा

जाट वीरांगना रानाबाई की शाहस की वीरगाथा सम्राट् अकबर के शासनकाल में वीरांगना रानाबाई थी, जिसका जन्म संवत् 1600 (सन् 1543 ई०) में जोधपुर राज्यान्तर्गत परबतसर परगने में हरनामा (हरनावा) गांव के चौ० जालमसिंह धाना गोत्र के जाट के घर हुआ था। वह हरिभक्त थी। ईश्वर-सेवा और गौ-सेवा ही उसके लिए आनन्ददायक थी। उसने अपनी भीष्म प्रतिज्ञा आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने की कर ली थी, इसलिए उसका विवाह नहीं हुआ। हरनामा गांव के उत्तर में 2 कोस की दूरी पर गाछोलाव नामक विशाल तालाब के पास दिल्ली के सम्राट् अकबर का एक मुसलमान हाकिम 500 घुड़सवारों के साथ रहता था। वह हाकिम बड़ा अन्यायी तथा व्यभिचारी, दुष्ट प्रकृति का था। उसने रानाबाई के यौवन, रंग-रूप की प्रशंसा सुनकर रानाबाई से अपना विवाह करने की ठान ली। उसने चौ० जालमसिंह को अपने पास बुलाकर कहा कि “तुम अपनी बेटी रानाबाई को मुझे दे दो। मैं तुम्हें मुंहमांगा इनाम दूंगा।” चौ० जालमसिंह ने उस हाकिम को फ़टकारकर कहा कि - “मेरी लड़की किसी हिन्दू से ही विवाह नहीं करती तो मुसलमान के साथ विवाह करने का तो सवाल ही नहीं उठता।” हाकिम ने जालमसिंह को कैद कर लिया और स्वयं सेना लेकर रा

स्पेन (रोम) में जाट और उनका साम्राज्य

** स्पेन में जाट ** एलरिक/अलारिक वैन रोम की गद्दी पर बैठने वाला पहला जाट था (इनका जन्म 370 ई.) किन्तु वह पुरे रोम पर राज्य नही कर सका । अनेक शाहसी गाथ(जाट) योद्धाओ ने गाल पर आक्रमण किए । जाट प्राचीन शासक लेखक बी एस दहिया पृष्ठ 80 पर लिखते हैं "जाट राजा इयुयिक 466 से 484 ई तक स्पेन व् पुर्तगाल का शासक रहा । उसके शासनकाल में शिवि गोत्री जाटों को इन्हीं के भाई जाटों ने स्पेन से निकलकर रूम सागर पार करके अफ्रीका में चले जाने को विवश किया । (इससे स्पस्ट होता है की शिवि जाट अफ्रीका में भी पहुंचे ) स्पेन पुर्तगाल में राजा इयूरिक का पुतद एलरिक द्वितीय जाटो का आठवां राजा था जो 24 दिसम्बर 484 को अपने पिता का उत्तराधिकारी बना (स्पेन में इसने बहुत अछि कानून व्यवस्था की जो "स्रोत संग्रह" के नाम से प्रसिद्ध है) 711 ई में तरीक की अध्यक्षता में मुसलमानो ने स्पेन में जाटों पर चढ़ाई की । उस समय जाटों का नेता रोडरिक(रूद्र) था ।बह युद्ध में हार गया और बर्बर मुसलमानो का स्पेन और गाल पर अधिकार हो गया । (जाट इतिहास पृ 188-189 लेखक ठा देशराज) इसके बाद फिर स्पेन पर जाटों का राज्य रहा जिसका

देशभक्त मेजर जयपाल सिंह (आजादी की क्रांति में अहम योगदान)

देशभक्त मेजर जयपाल सिंह मलिक ( आजादी की क्रांति में एक अहम योगदान) मेजर सिंह कुरु प्रदेश में 1916 में एक गरीब जाट परिवार में जन्मे थे । देश की सेवा करने के लिए उन्होंने 1941 में ब्रिटिश आर्मी ज्वाइन की । और व्रिटिश सरकार के खिलाफ सेनिको को जागरूक किया ।इन्होंने सेनिको में एक क्रांति उतपन्न की । इन्होंने 300 सैनिक भारतीय कमांडिंग ऑफिसर का एक संगठन बनाया उस समय ये एयर सप्लाई यूनिट में लेफ्टिनेंट के पद पर थे ।इस संगठन का सेनिको पर बहुत गहरा प्रभाब पड़ा । और इनका उद्देश्य सशस्त्र विद्रोह करना था । यह अंग्रेजों के बिरुद्ध इतिहास लेख छपबाकर सैनिकों में बांटते थे । ये बंडलों को छबनियों के पास गिरा देते थे । इस प्रकार काफी दिनों तक इनका विद्रोह अभियान जारी रहा था । 25 अगस्त 1942 को फ्रंटियर हिन्दू होटल दिल्ली में इन क्रन्तिकारी सेनिको की एक बैठक हुई । इस बैठक में मेजर सिंह ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था की - "जब तक सेना और जनता एकजुट होकर किसी क्रन्तिकारी संगठन के निचे बगावत नही करते, तब तक परिणाम की दृष्टि से घटिया होते भी अंग्रेज गुण में श्रेष्ठ बने रहेंगे।" इनके इन्ही वि

भारत माता विधावती जी .......अमर रहें ........

भारत माता विधावती की जय महज़ चंद पंग्तियों के पीछे "भारत माता की जय" का जुमला गढ़ते हुए आख़िर आज भारत माता का एहसास हुआ हालाँकि यह अदृश्य रहने वाली भावनाओं के ज़रिए ही था। इस माँ ने एक बार कहा था "यदि ईश्वर कोई ऐसी सर्वोत्तम व्यवस्था कर देते कि औलादों के दुख माताओं को लग जाया करते तो माताएँ संसार में एक भी बच्चे को दुखी न रहने देतीं" एक माँ जिसके चौबीस साल से भी कम उम्र के बेटे ने वतन की ख़ातिर फाँसी का फंदा चूम लिया हो, बेटे ने मरने से पहले न रोने का वायदा लिया हो। जिस समय सारा देश रो रहा था तो उस माँ के लिए एक भी आँसू न बहाना कितना कष्टकारी रहा होगा। जिसका पति कभी देश की ख़ातिर जेल तो कभी दूर देश में अनाथों की सेवा तो कभी मुक़दमों की पैरवी ताउम्र ही करता रहा हो साथ ही अंतिम दिनों में फ़ालिज से ग्रसित हो गया हो। जिसके देवर-ज्येष्ठ जेल में प्रताड़ित हो बीमारी से वहीं मर गये हों तो दूसरे को जलावतन करके बर्मा भेज दिया गया हो। जिसके अन्य दोनों बेटे जेल की बेड़ियों में जकड़े रहे हों। 1904 में शादी के बाद से आज़ादी तक इसी तरह के तमाम कष्टों व प्रताड़ना को सहने के बा

जाट महाराजा और सूफी संतो के बिषय में

जाट बलवान जय भगवान जाट राजा सूफी संत व महात्माओ के प्रति बहुत उदार रहे हैं ।। ऐसी बहुत सी कहानी है जिससे इस बात का पता चलता है ।। महाराजा सूरजमल जिन्होंने मन्दिर मस्जिद दोनों का निर्माण कराया ।। ऐसे ही जाट नरेश भागमल तोमर जी जिन्होंने मन्दिर मस्जिद का निर्माण कराया ।। इन बातो से पता चलता है की जाट कभी किसी धर्म का गुलाम नही रहा उसे अपनी प्रजा अपने बालक समान रही धर्म जाती से ऊपर पहले अपनी प्रजा रही ।। तो किसी भी जाट नरेश की तुलना किसी धर्म से करना कभी उचित नही होगा ।। और इसीलिए समाज ने जाट को देवता व ठाकुर (भगवान) की उपाधी दी ।। जाट नरेश भागमल तोमर जी फफूंद के राजा ने एक मस्जिद का निर्माण कराया जिसपर उनका नाम आज भी खुदा हुआ है । इन्होंने संत शाह जाफर बुखारी की दरगाह का निर्माण 1769 इस्बी में कराया जहां भागमल जी का शिलालेख आज भी दरगाह की इमारत में लिखा है ।। बाबा सहजानन्द जी और सूफी संत शाह जाफर का परिचय शाह जाफर 1529 ई़ में बाबर की फौज में शामिल रहे सैयद युसुफ शाह जफर बुखारी और उनके भाई जलाल बुखारी फफूंद आये। उक्ते दोनों भाई बाबर और इब्राहिम लोदी के मध्य युद्ध में बाबर की ओर स

बाबा भय सिंह जाट ( अहलावत) जी के बिषय में

बाबा भय सिंह अहलावत ( इतिहास के पन्नो में खोये हुए योद्धा ) - कुछ महापुरुष ऐसे होते है जिनका नाम इतिहास के पन्नो में खो जाता है जाट युद्ध प्रिय रहा है पर कमी ये रही है कि जाट कलम का कमजोर रहा है ऐसे महापुरषो का इतिहास भुला दिया गया जो स्वर्णिम अक्षरो में लिखना चाहिए था आज बात करते है बाबा भय सिंह की, बाबा भय सिंह का नाम भोर सिंह था जिनका जन्म डीगल गांव जिला झज्जर (हरियाणा) में हुआ था जिनके नाम पर गांव भैंसी (मुज़फ्फरनगर ) का नाम पड़ा शुरू शुरू में इस गांव को भय सिंह की ढाणी कहते थे जो बाद में अंग्रेजो ने बिगाड़ कर भैंसी कर दिया कुछ लोग बाबा भय सिंह को लुटेरा कहते है जिनका ख़ौफ़ बहुत था परंतु बाबा भय सिंह गरीबो के रोबिन हुड थे जो बड़े बड़े व्यापारियों को लूट कर गरीबो में बाटते थे बाबा भय सिंह ने आस पास के गावो के जाटो के साथ मिलकर 1761 में अहमदशाह के काफिले को लूट लिया था फिर बाबा भय सिंह आस पास के जाटो को लेकर यमुना पार करके कई समूह में गांव बसाये जिसमे अहलावत गोत्र के साथ दलाल गोत्री जाट और अन्य गोत्र भी थे कुछ अहलावत जाट कंडेरा - तोमर गोत्र के गांव में रुके (बागपत ) में रुके, कुछ

मुगल कल और जाट योद्धे

मुगल काल में जब औरंगजेब दौर जुल्म की इन्तहा पे था तब मुगलो की राजधानी दिल्ली के निचे 1660 के आसपास जाटों के गोकुला चूड़ामन राजाराम जाट उनके वाद बदन सिंह सूरजमल जबाहर सिंह जेसे जाट योद्धाओं ने भरतपुर और ब्रज में मुगल सत्ता के सामने दीवार खड़ी कर दी ।। एक के बाद एक सूरमा अपना सर कटा रहा था बल्लभगढ़ बिलकुल दिल्ली तले है जहां जाटो ने अपनी रियाशत बना डाली और राजा नाहर सिंह इस रियाशत के नरेश ने 136 दिन दिल्ली को अंग्रेजो से मुक्त रखा सन् 1857 कक क्रांति और दूसरी तरफ इसी दौरान जटिस्तान यूपी से बाबा साहमल तोमर ने डंका बजा डाला था ।। जाटों ने मुगलो को चारो और से घेर लिया था एक बार 1756 में महाराजा सूरजमल ने दिल्ली जीती मुगलो से दुबारा उनके बेटे जबाहर सिंह ने 1764 में ।। और वहीं दूसरी तरफ पंजाब में खालसा सेना के कमांडर बनके जाटो ने काबुल कांधार तक मुगलो की अकड़ निकाल दी ।। 1756 में ही पंजाब में बाबा दीप सिंह ने हजारो स्त्रियों को मुगलो के चंगुल से छुड़ाया और दोनों शाहीबजादो की मोत का बदला लिया ।। एकदौर महाराजा रणजीत सिंह का भी जब मुगल अफगानिस्तान तक ललकारे गए और कुछ मुगलो ने अपनी जाती ह

जट्टा तेरे हाथ तेरे भाग .......

 बाबा चौधरी चरण सिंह जी, महाराजा सूरजमल जी, बाबा महाराजा रणजीत सिंह जी, बाबा साहमल तोमर जी, सर छोटूराम जी और अन्य सभी जाट महापुरुषों को कोटि कोटि नमन!! कुछ ध्यान देने योग्य बातें जरूर पढ़ें ☆☆☆जाट कौम अभी भी गुलाम है☆☆☆ सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रमों में इतिहास विषय में राजपूत, मराठा आदि का इतिहास पढ़ाया जाता है लेकिन महाराजा सूरजमल व महाराजा रणजीत सिंह जेसे जाट शूरवीरो का नाम तक नहीं है । अर्थात् पाठ्यक्रमों से जाट इतिहास नदारद है । इतिहास में केवल इतना ही लिखा कि जाट लूटेरे थे लिखा अंग्रेजों ने और दुनिया की सबसे बड़ी जाट नस्ल को शुद्र कहा आपके ब्राह्मणों ने ।। इस प्रकार की नीति एक गुलाम समाज के प्रति ही अपनाई जा सकती है ।। इसलिए जाट समाज को किसी भी प्रकार से आजाद नहीं कहा जा सकता । सन् 1947 के बाद जाटों ने अपनी 26 रियासतों का भारत संघ में विलय इस विश्वास के साथ किया था कि भारत सरकार उनकी संस्कृति, पहचान, अधिकारों व इतिहास की सुरक्षा करेगी । लेकिन कहां है वह सुरक्षा? आप सब जानते हो याद होगी फ़रवरी 2016 आज हमारे खाने-पीने व मनोरंजन तक पर मनुवादियों ने पूरा कब्जा कर लिया ह

वजीराव मस्तानी और जाट महाराजा सूरजमल जी

# जाटराजा सूरजमल ने दी थी। बाजीराव की मस्तानी को पनाह बहुत कम लोग जानते होंगे कि करीब 250 साल पुरानी इस प्रेम कहानी की नायिका मस्तानी ने भरतपुर में आखिरी सांस ली थी।किसी जमाने में देश के मशहूर शायरों और लेखकों की प्रेम कहानियों मे शुमार रही मस्तानी के भरतपुर से सम्बंध को लेकर लोगों के जेहन में भी उत्सुकता बढ़ा दी है। मशहूर लेखक जयदेव की कहानियों में जगह बनाने वाली मस्तानी से जुड़े कुछ अहम तथ्य सामने आये हैं जिनका जुड़ाव राजस्थान के भरतपुर से है।बाजीराव की मस्तानी के भरतपुर शहर के मोरी चारबाग इलाके में आज भी सराय के अवशेष मौजूद हैं और इस प्रेम की आखिरी निशानी यानी बाजीराव-मस्तानीके एकमात्र पुत्र शमशेर बहादुर कि सराय भी वहीं मौजूद है। इस सराय को अब मस्जिद शमशेर बहादुर के नाम से जाना जाता है। भरतपुर शहर में मथुरा गेट स्थित मस्तानी की सराय इतिहास के अनेक स्वर्णिम पन्नों से जुड़ी है।इतिहासकारों का कहना है कि अपने आखिरी क्षणों में बाजीराव की मस्तानी भरतपुर में आकर रहने लगी थी। भरतपुर के जाटों और मराठों के बीच सम्बंधों की मधुरता को समेटे 17 वीं शताब्दी की चर्चित प्रेमकहानी के ये आखिरी तथ्य ह

जटवीर कान्हा रावत जी का जीवन परिचय .....

गोकला जाट ने, अथक साहस का परिचय देकर मथुरा, सौख, भरतपुर, कामा, डीग, गोर्वधन, छटीकरा, चांट, सुरीर, छाता, भिडूकी, होडल, हसनपुर, सोंध, बंचारी, मीतरोल, कोट, उटावड, रूपाडाका, कोंडल, गहलब, नई, बिछौर के पंचों व मुखियों को रावत पाल के बडे गांव बहीन के बंगले पर एकत्र कर एक विशाल पंचायत बुलाई. इस पंचासत में औरंगजेब से निपटने की योजना तैयार की गई. इस पंचायत में बलबीर सिंह ने गोकला जाट को आश्वासन दिया कि वे अपनी आन बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देंगे, लेकिन विदेशी आक्रांताओं के समक्ष कभी नहीं झुकेंगे. युद्ध करने की समय सीमा तय हो गई. जंगल की आग की तरह खबर विदेशी आंक्राता औरंगजेब तक पंहुच गई. उसने अपना सेनापति शेरखान को तुंरत बहीन भेजा.माघ माह की काली घनी अंधेरी रात में देव राज इंद्र द्वारा किसानों की फसलों के लिए बरस रहे मेघ की बूंदों, काले बादलों के बीच नागिन की तरह चमकती बिजली, जानलेवा कडकडाती शीत लहर में गांव के चुनिंदा लोग वर्णित पंचायत में लिए गए फैसले की तैयारी कर रहे थे, कि अचानक गांव के चौकीदार चंदू बारिया ने औरंगजेब के सेनापति दूत शेरखान के आने की सूचना दी. बंगले पर विराजमा

बाबा शाहमल जाट (तोमर) जी का जीवन परिचय

बाबा शाहमल जाट (तोमर) बागपत जिले में बिजरौल गांव के एक साधारण परन्तु आजादी के दिवाने क्रांतिकारी किसान थे. वह मेरठ और दिल्ली समेत आसपास के इलाके में बेहद लोकप्रिय थे. मेरठ जिले के समस्त पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भाग में अंग्रेजों के लिए भारी खतरा उत्पन्न करने वाले बाबा शाहमल ऐसे ही क्रांतिदूत थे. गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए इस महान व्यक्ति ने लम्बे अरसे तक अंग्रेजों को चैन से नहीं सोने दिया था. यह 1836 क्षेत्र में अंग्रेजों के अधीन गया. अंग्रेज अदिकारी प्लाउड ने जमीन का बंदोबस्त करते समय किसानों के साथ हुए अत्याचार को कुछ सुधारा परन्तु मालगुजारी देना बढा दिया. पैदावार अच्छी थी. जाट किसान मेहनती थे सो बढ़ी हुई मालगुजारी भी देकर खेती करते रहे. खेती के बंदोबस्त और बढ़ी मालगुजारी से किसानों में भारी असंतोष था 1857 जिसने की क्रांति के समय आग में घी का काम किया. शाहमल का गाँव बिजरौल काफी बड़ा गाँव था. 1857 की क्रान्ति के समय इस गाँव में दो पट्टियाँ थी. उस समय शाहमल एक पट्टी का नेतृत्व करते थे. बिजरौल में उसके भागीदार थे चौधरी शीशराम और अन्य जिन्होंने शाहमल की क्रान्तिकरी कार्रवाइयों क

जट महाराजा सलकपाल देव सिंह तोमर

महाराजा सलकपाल देव सिंह तोमर महाराजा सलकपालसिंह तोमर समन्त देश (दिल्ली ) के राजा थे । इन्हे जाटदेव के रूप में भी जाना जाता है । इनका जन्म माघ पूर्णिमा के दिन 961 ईस्वी में महिपालपुर के पास हुआ । इसी दिन इनके पिता गोपालदेव सिंह तोमर का राज्य तिलक समन्त देश के सम्राट के रूप हुआ । इस कारण इनको इनके बाबा सुलक्षणपाल बोलते थे । महराजा सलकपाल देव सिंह ने समाज में के लोकतान्त्रिक व्यवस्था कायम कि जिसको चौधराठ का समाज बोला जाता है । इस सामाजिक व्यवस्था में मुखिया का चुनाव लोगो दुवारा आपसी सहमति से होता है। तोमर जाटों को सलकलाण शाखा इनकी के नाम पर है । जो आज बाघपत क्षेत्र में निवास करती है । सलकपाल सिंह 18 वर्ष 3 माह 15 दिन कि आयु में 979 ईस्वी में समन्त देश कि गद्दी पर बैठे थे उस समय तक तोमर राज्य को अनग प्रदेश या समन्त प्रदेश के रूप में जाना जाता था । दिल्ली कि स्थापना इनके पोते महाराज अनगपाल सिंह में दिल्ली कि स्थापना कि जो इनके भाई जयपाल के पुत्र कवरपाल का लड़का था सलकपाल सिंह ने 979 ईस्वी से 1005 ईस्वी तक 25 वर्ष 10 माह 10 दिन तक शासन किया अपने शासन काल में बहुत से किले और मंदिरो को निर्मा

तोमर(तँवर) वंश के खुटेला/कुन्तल गोत्र का इतिहाश

#तोमर(तँवर) वंश खुटेला /कुन्तल इतिहासमथुरा जिले मे पाण्डुवंशी तोमर /तँवर जाट को अर्जुन के नाम पर कौन्तेय/कुन्तल(कुंती पुत्र) भी बोला जाता है।#दिल्ली के राजा अनंगपाल तृतीय जिनका वास्तविक नाम अर्कपाल था। उनके दुवारा मथुरा के गोपालपुर गाँव में संवंत 1074 में मन्सा देवी के मंदिर की स्थापना की यह गाँव गोपालदेव तोमर ने बसाया और एक सैनिक चोकी यहां बनाई।अनंगपाल तोमर/तँवर ने गोपालपुर के पास 1074 संवत में सोनोठ में सोनोठगढ़ का निर्माण करवाया जिसको आज भी देखा जा सकता है।इन्होंने सोनोठ में एक खूँटा गाड़ा और पुरे भारतवर्ष के राजाओ को चुनोती दी की कोई भी राजा उनके गाड़े गए इस स्तम्भ (खुटे) को हिला दे या दिल्ली राज्य में प्रवेश कर के दिखा दे किसी की हिम्मत नहीं हुई। इसलिए जुरारदेव तोमर के वंशज खुटेला कहलाये। महाराजा अनंगपाल तोमर की रानी हरको देवी के एक पुत्र जुरारदेव तोमर हुए जो सोनोठ गढ़ में गद्दी पर बैठे । जुरारदेव तोमर के आठ पूत्र हुए#1_सोनपाल देव तोमर-इन्होंने सोनोठ पर राज्य किया#2_मेघसिंह तोमर-इन्होंने मगोर्रा गाँव बसाया#3_फोन्दा सिंह तोमर ने फोंडर गाँव बसाया#4_गन्नेशा (ज्ञानपाल) तोमर ने गुनसार

शिवराण-श्योराण-सोराणयह-श्योराण जाट गोत्रगोत्र का इतिहाश

शिवराण-श्योराण-सौराणयह श्योराण प्राचीन जाट गोत्र है। भारतीय साहित्य में इसका नाम शूरा लिखा है (महाभारत 2/13/26)। आजकल मध्य एशियामें इसे शोर बोला जाता है। महाभारत में इन शूरा लोगों को सूरयासुर लिखा है। सूरा राजाओं ने आकर युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भेंट दी थी। इन प्रमाणों से साफ है कि श्योराण जाटों का शासन महाभारत काल में था। गुप्तकाल के प्रसिद्ध विद्वान वराह मिहिर ने अपनी पुस्तक बृहत-संहिता में श्योराण-शूराण जाटों को शूरा-सेना लिखा है। चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पुत्र उनु की दसवीं पीढी में उशीनर के पुत्र शिवि से शिवि-शौव्य-शैव जाट गोत्र प्रचलित हुआ। शिवराण-श्योराण जाट गोत्र इसी शिवि-शौव्य जाट गोत्र की शाखा है ।भाट की पोथी के अनुसार राज गज, जिसने गजनी बसाई और उसका शासक हुआ, के दो पुत्र मंगलराव और मसूरराव थे। मंगलराव लाहौर का शासक था और मसूरराव सियालकोट का। इनका राज्य ईरानी आक्रमणकारियों ने छीन लिया। वे राजस्थान की ओर भाग गये। मंगलराव के छः पुत्रों में से एक का नाम शोराज था जिसके नाम पर श्योराण गोत्र प्रचलित हुआ। भाट की पोथी के लेख असत्य हैं क्योंकि इससे बहुत वर्ष पहले महाभारत काल में

मल्लयुद्ध (कुश्ती) जाटो का अपना खेल

मल्लयुद्ध (कुश्ती) जाटों का अपना खेल‘जाट तो जाट है लड़ाई हो या खेल,जंग-ए-मैदान में दुश्मन को पछाड़ा तो प्रतिद्वंद्वी की बनाई रेल।।’कुश्ती का जन्म भारत में प्राचीन हरयाणा क्षेत्र में हुआ, जिसके जन्मदाता जाट थे, इसे आज भारत में ‘फ्री स्टाइल’ कुश्ती का नाम दिया गया। लेकिन जब ये जाट यूरोप पहुंचे तो ये कुश्ती आधी ही रह गई अर्थात् टांगों का इस्तेमाल होना बन्द हो गया और इसे ‘ग्रीको रोमन’ नाम से जाना गया। इसी मल्लयुद्ध से कबड्डी का जन्म हुआ और यह खेल भी जाटों में उतना ही लोकप्रिय है जितनी कुश्ती। पिछले दिनों सन् 2006 में दोहा एशियाड में भारतीय कबड्डी टीम के पांच खिलाड़ी जाट थे। जिनमें सांगवान गोत्र के गांव आदमपुर ढाड़ी जिला भिवानी (हरयाणा) से विकास और सुखबीर दोनों चचेरे भाई एक साथ थे। इसी एशियाड में 25 जाट खिलाडि़यों के गले में तगमे पहनाए गए (पत्रिका जाट ज्योति) तथा पूरे एशिया में परचम लहराया। कई कबड्डी खिलाडि़यों को ‘अर्जुन अवार्ड’ से सम्मानित किया जा चुका है। जाट संसार के पूर्वी देशों में नहीं गये तो यह कुश्ती खेल वहाँ नहीं पनप पाया और इसकी नकल पर वहाँ सूमो, साम्बो, ज्मू-जित, जूड़ो व कराटे

दिल्ली की कुतुबमीनार :- जाटो की यादगार

दिल्ली की कुतुब मीनार जाटों की यादगार हमने तो इतिहास बनाया, लिखा नहीं।मिटाने वालों ने बहुत किया, पर मिटा नहीं॥में आपको बता दूँ की जाट ने इतिहाश ही नही भूगोल भी अति सुन्दर बनाया है पर इतिहाश के साथ साथ हमारा भूगोल भी बदल दिया गया । आज तक यही प्रचारित किया जाता रहा है कि दिल्ली की कुतुब मीनार कुतुबुदीन ऐबक ने बनाई थी जो सच्चाई के कहीं भी पास नहीं है। कुतुबुदीन ने अवश्य 1206 से 1210 तक दिल्ली पर शासन किया, लेकिन इस अवधि में जाटों ने कभी उसे चैन से नहीं बैठने दिया। दिपालपुर रियासत के राजा जाटवान (मलिक गठवाला गोत्री जाट) ने ऐबक को पूरे तीन साल तक नचाये रखा, जब तक वह महान् जाट योद्धा लड़ाई में शहीद नहीं हो गये।जाटों की सर्वखाप पंचायत की सेना ने ऐबक की सेना को वीर योद्धा विजय राव ‘बालियान’ की अगवाई में उत्तर प्रदेश के भाजु और भनेड़ा के जंगलों में पछाड़ा, दूसरी बार वीर यौद्धा भीमदेव राठी की कमान में बड़ौत के मैदान में पीटा, तीसरी बार वीर यौद्धा हरिराय राणा की कमान में दिल्ली के पास टीकरी में भागने के लिए मजबूर किया। ऐबक को मीनार तो क्या अपने लिए महल व किला बनाने का समय तक जाटों ने नहीं दिया।

चौ. छोटूराम जी पर एक विशेष रागनी ।।

छोटू (छोटूराम) ने सन् 1896 में सांपला के प्राईमरी स्कूल से बोर्ड की पांचवीं की परीक्षा पास करी। रोहतक जिले में प्रथम स्थान प्राप्त करके वजीफा लिया। यह खुशखबरी सुनाने के अपने पिता सुखिया के पास दौडा हुआ जाता है और क्या कहता है। ऊपरातली की रागनी। एक कली छोटू। दूसरी पिता सुखिया। मैं हुया पांचमी पास जिले में पहला आया सूं सिर पुचकार मेरा बाबू मैं वजीफा ल्यायाआसूं। मास्टर जी नैं खूब पढाया देकै ध्यान पिता। जिंदगी भर नां उतर सकै उसका एहसान पिता। उस धोरै हो आइये एक बै ले मेरी मान् पिता। मदद करणियां का चाहिए करणा सम्मान पिता। मोहनलाल जी की कृपा तैं मैं हुया सवाया सूं। 1। सिर पुचकार मेरा बाबू मैं वजीफा ल्याया सूं। चोखी बात करी रै छोटू मैं ऊंचा ठा दिया। कुटम कबीले सारे में मैं सिखर चढा दिया। तनैं जिसी करी थी मेहनत हर नैं फल पकड़ा दिया। आशिर्वाद मास्टर का बी सफल बणा दिया। पहल्यम जाण्या नहीं कदे मैं इसा सुख पाया सूं। 2। सिर पुचकार मेरा बाबू मैं वजीफा ल्याया सूं। इब और पढ़ाई आगे की मैं करणा चाहूं सूं। तालीम की किस्ति चढ कै जग तैं तिरणा चाहूं सूं । बणा मिसाल अपण्यां कै आगै धरणा

बल्लभगढ़ नरेश अमर बलिदानी राजा नाहर सिंह (विशेष जानकारी )

बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिहँ 1857की आजादी के महानायक जिन्होेने फाँसी चढ़कर देश के लिए अपना राजपाठ ही नही अपना सबकुछ बलिदान किया | आज बड़े फक्र की बात है कि उनको सर्व समाज द्वारा याद किया जा रहा है | जबकि सरकार शहीदों की अनदेखी कर रही है| 1857 की आजादी की लड़ाई जो अग्रेजों के खिलाफ पहली लड़ाई थी |इस लड़ाई में हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई और जाट कौम ने सभी ने धर्म व जाति से ऊपर उठकर राजा नाहर सिहँ की अगुआई में पूरे भारत में क्रान्ति का बिगुल बजाया | धोखे से अग्रेजों ने समझौता वार्ता कर राजा नाहर सिहँ और उनके सेनापति गुलाब सिहँ सैनी , खुशहाल सिहँ गुर्जर व भुरा सिहँ को धोखे से गिरफ्तार करके 9 जनवरी 1858 को दिल्ली के लाल किले के सामने चाँदनी चौक पर सरेआम फांसी पर लटका दिया गया | फांसी से पहले अपनी अतिंम इच्छा में जागरूकता का संदेश देते हुए कहा था कि मेरे मरने का मातम करने के बजाय क्रान्ति की इस ज्योति को अपने दिलों में जलाये रखना | #जय जाट योद्धेय... शत् शत् नमन 🙏 कुलदीप पिलानिया बाँहपुरिया बुलंदशहर उत्तर प्रदेश

जाटो की अमर कर देने वाली वीरगाथा ( Battle of Dograi )

Battle of dograi ये जटों की अमर करदेने वाली वीरता की गाथा है जो 21 /22सितम्बर 1965 को लड़ी गयी थी इस में पहले बंदूको से फिर ग्रेनेड और बाद में टोपी और हाथो से ये लड़ाई लड़ी गयी थी जिस में जाटों ने लाहौर के करीब dograi पर कब्ज़ा किया था ये लड़ाई संसार की 10 greatest battles में गिनी जाती है ये 3rd जाट रेजिमेंट के सिपाही थे और इसके leader Lt col Desmonde hayde थे और कमांडिंग अफसर col golwala थे इस लड़ाईमें 308 पाकिस्तानी फौजी मारे गए थे और 86 जट भारतीय फौजी श्ाहीद हुए थे ये लड़ाई 3rd jatts और 18th पंजाब रेजिमेंट के बीच हुई थी ये लड़ाई जब हुई तब 6 सितम्बर को dograi जो लाहौर से एक किलोमीटर दूर है उस पर 3 rd jat regiment ने कब्ज़ा कर लिया था और इस दौरान जो बाकि रसद और फ़ौज वहाँ नहीं भेजी जा पायी थी तो ये युद्ध 21 /22सितम्बर को dograi को जाटों ने अपने कब्जे में रखा इस लड़ाई का निशान लाहौर की सीमा का निशान जो जाट उखाड़ के लाये थेआज भी 3rd जट के musem में रखा है वो lt col Desmonde hayde ही थे उस वक्त अपनी बेजोड़ नेत्रत्व और जटों की बहादुरी की वजह से 1965 की जंग भारत जीत पाया एक पाकिस्तानी अफस

इतिहाश का महत्व ( इतिहाश चाहे किसी का हो वो उसका दर्पण होता है जो जानना पहचानना बहुत जरूरी है )

इतिहास का महत्त्व - इतिहास समाज का दर्पण है। किसी देश अथवा जाति के उत्थान-पतन, मान- सम्मान, उन्नति-अवनति आदि की पूर्ण व्याख्या उसके इतिहास को पढ़ने से हमको भलीभांति विदित हो जाती है। जिस देश या जाति को नष्ट करना हो तो उसके साहित्य को नष्ट करने से वह शताब्दियों तक पनप नहीं सकेगी। हमारे देश भारत के सम्बन्ध में यही बात बिल्कुल सत्य सिद्ध हुई है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि जिस जाति का जितना ही गौरवपूर्ण इतिहास होगा वह जाति उतनी ही सजीव होगी। इसी कारण विजेता जाति पराजित जाति के इतिहास को या तो बिल्कुल नष्ट करने का प्रयत्न करती है जैसा कि भारत के मुगल, पठान शासकों ने किया था अथवा ऐसे ढंग से लिख देती है जिससे उस जाति को अपने पूर्वजों पर गौरव करने का उत्साह न रहे। इतिहास का इसी प्रकार का स्वरूप प्रायः अंग्रेज लेखकों ने भारत के सामने पेश किया। इतिहास हमें यह बताता है कि हम कौन थे और आज क्या हो गए हैं। इससे हम कुछ सीखें और भविष्य में अपने को सुधारें। वे गलतियां जिनके कारण हमारा पतन हुआ, फिर न हों, इसका निरन्तर ध्यान रखें यही सीख हमें इतिहास से ग्रहण करनी चाहिये। इतिहा

ऋषिक व तुषार चन्द्रवंशी जाटवंश का इतिहाश (हूणों का आक्रमण; चीन की दीवार )

ऋषिक व् तुषार चन्द्रवँशी जाटवंश का इतिहाश (चीन की महान दीवार का इतिहाश) ऋषिक व तुषार चन्द्रवंशी जाटवंश प्राचीनकाल से प्रचलित हैं। बौद्धकाल में इनका संगठन गठवाला कहलाने लगा और मलिक की उपाधि मिलने से गठवाला मलिक कहे जाने लगे। लल्ल ऋषि इनका नेता तथा संगठन करने वाला था। इसी कारण उनका नाम भी साथ लगाया जाता है - जैसे लल्ल, ऋषिक-तुषार मलिक अथवा लल्ल गठवाला मलिक। चीनी इतिहासों में तुषारों और उनके पड़ौसी ऋषिकों को यूची या यूहेचि लिखा पाया गया है। इसका कारण सम्भवतः यह था कि ऋषिक तुषार दोनों वंशों ने सम्मिलित शक्ति से बल्ख से थियान्शान पर्वत, खोतन, कपिशा और तक्षशिला तक राज्यविस्तार कर लिया था। यह समय 175 ईस्वी पूर्व से 100 ईस्वी पूर्व तक का माना गया है। पं० जयचन्द्र विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास प्रवेश’ के प्रथम भाग में पृ० 112-113 पर जो नक्शा दिया है, तदनुसार “ऋषिक तुषार तक्षशिला से शाकल (सियालकोट), मथुरा, अयोध्या और पटना तक राज्य विस्तार करने वाली जाति (जाट) सिद्ध होती है।” इस मत के अनुसार प्राचीन काम्बोज देश हजारों वर्षों तक तुषार देश या तुखारिस्तान कहलाता रहा। जिस समय भारतवर्ष में स

महाराजा सूरजमल जी की मोत का बदला उनके पुत्र महाराजा जबाहर सिंह जी द्वारा

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महाराजा सूरजमल जी की धोके से म्रत्यु के बाद का इतिहाश (महाराजा सूरजमल जी का इतिहाश निचे comment में link में पढ़ सकते हैं) महाराजा की म्रत्यु का सन्देश जब भरतपुर पहुंचता है तो महारानी क्या कहती हैं अपने बेटे से :-----“तुम पगड़ी बांधे फिरते हो और वहां शाहदरा के झाऊओं में तुम्हारे पिता की पगड़ी उल्टी पड़ी है!” - महारानी किशोरी देवीएक जीत, सम्मान, शौर्य और प्रतापी तेज की भूखी शेरनी जाटणी का यही वो तान्ना था जिसने उनके सुपुत्र महाराजा जवाहर सिंह को भारतेंदु बना दिया।यही वो रूदन था जिसको सुन अपने पिता की अकस्मात मौत के बदले हेतु एक लाख सेना के साथ रणबांकुरे जवाहरमल ने सीधा दिल्ली पर हमला दे बोला।महाराजा सूरजमल की बहादुर रानी जिसने लाल किले की चढ़ाई में भाग लिया तथा पुष्कर में भी की जीत का कारण बनी तथा वहां जाट घाट बनवाया।जब 1763 में महाराजा सूरजमल शाहदरा के पास धोखे से मारे गये तो महारानी किशोरी (होडल के प्रभावशाली सोलंकी जाट नेता चौ. काशीराम की पुत्री) ने महाराजा जवाहर सिंह को एक ही ताने में यहकहकर कि "तुम पगड़ी बांधे फिरते हो और वहां शाहदरा के झाऊओं में तुम्हारे पिता की पगड़ी उल्

समरवीर गोकुला सिंह जी का सम्पूर्ण इतिहाश ।। ऐसे वीर को लाखो वार शत शत नमन

गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का सरदार था। 10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने इस्लाम धर्म को बढावा दिया और किसानों पर कर बढ़ा दिया। गोकुला ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की। अत्याचारी फौजदार अब्दुन्नवी का अन्त मई का महिना आ गया और आ गया अत्याचारी फौजदार का अंत भी. अब्दुन्नवी ने सिहोरा नामक गाँव को जा घेरा. गोकुलसिंह भी पास में ही थे। अब्दुन्नवी के सामने जा पहुंचे। मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी. फौजदार गोली प्रहार से मारा गया। बचे खुचे मुग़ल भाग गए। गोकुलसिंह आगे बढ़े और सादाबाद की छावनी को लूटकर आग लगा दी. इसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठ गयी कि आगरा और दिल्ली के महलों में झट से दिखाई दे गईं. दिखाई भी क्यों नही देतीं. साम्राज्य के वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनि