मल्लयुद्ध (कुश्ती) जाटो का अपना खेल

मल्लयुद्ध (कुश्ती) जाटों का अपना खेल‘जाट तो जाट है लड़ाई हो या खेल,जंग-ए-मैदान में दुश्मन को पछाड़ा तो प्रतिद्वंद्वी की बनाई रेल।।’कुश्ती का जन्म भारत में प्राचीन हरयाणा क्षेत्र में हुआ, जिसके जन्मदाता जाट थे, इसे आज भारत में ‘फ्री स्टाइल’ कुश्ती का नाम दिया गया। लेकिन जब ये जाट यूरोप पहुंचे तो ये कुश्ती आधी ही रह गई अर्थात् टांगों का इस्तेमाल होना बन्द हो गया और इसे ‘ग्रीको रोमन’ नाम से जाना गया। इसी मल्लयुद्ध से कबड्डी का जन्म हुआ और यह खेल भी जाटों में उतना ही लोकप्रिय है जितनी कुश्ती। पिछले दिनों सन् 2006 में दोहा एशियाड में भारतीय कबड्डी टीम के पांच खिलाड़ी जाट थे। जिनमें सांगवान गोत्र के गांव आदमपुर ढाड़ी जिला भिवानी (हरयाणा) से विकास और सुखबीर दोनों चचेरे भाई एक साथ थे। इसी एशियाड में 25 जाट खिलाडि़यों के गले में तगमे पहनाए गए (पत्रिका जाट ज्योति) तथा पूरे एशिया में परचम लहराया। कई कबड्डी खिलाडि़यों को ‘अर्जुन अवार्ड’ से सम्मानित किया जा चुका है। जाट संसार के पूर्वी देशों में नहीं गये तो यह कुश्ती खेल वहाँ नहीं पनप पाया और इसकी नकल पर वहाँ सूमो, साम्बो, ज्मू-जित, जूड़ो व कराटे आदि खेलों ने जन्म लिया। यह जाटों का खेल रहा। इसके लिए विस्तार से न लिखते हुए इतना ही प्रमाण देना काफी होगा कि सन् 1961 से लेकर सन् 2000 तक भारत सरकार ने कुल 29 पहलवानों को ‘अर्जुन अवार्ड’ दिये, जिनमें 22 अवार्ड जाटों के नाम हैं अर्थात् 4 प्रतिशत लोगों के पास 75.9 प्रतिशत अवार्ड हैं। दारासिंह (रणधावा) तथा मा० चन्दगीराम (कालिरामण) का नाम तो आज लगभग हर शिक्षित भारतीय जानता है। सातवें दशक के प्रारम्भ में हवलदार उदयचन्द हल्के वजन के बहुत ही तेज और फुर्तीले पहलवानहुए जिनका ओलम्पिक खेलों में चौथा स्थान था और अभी हाल में ही सुशील कुमार सौलंकी ओलम्पिक से मैडल लेकर आया तो रमेश कुमार गुलिया ने सन् 2009 की विश्व कुश्ती प्रतिस्पर्धा में 46 साल के अकाल के बाद मैडल प्राप्त किया। जाटों के लगभग हर गांव में अच्छे पहलवान हैं। सेना और अर्धसेना बलों में एक से एक बढ़कर पहलवान हुए हैं जिसमें सी.आर.पी.एफ. के द्वितीय कमांड अधिकारी ईश्वर सिंह हिन्द केसरी व अन्तर्राष्ट्रीय पहलवान रहे। तथा इसी प्रकार मथुरा से शहीद दिवान सिंह डिप्टी कमांडैंट हिन्द केसरी तथा अन्तर्राष्ट्रीय रेफरी थे।हजारों साल बाद आनेवाली पीढि़यों को विश्वास नहीं होगा कि कभी इस धरती पर कीकरसिंह, दारासिंह, चन्दगीराम, लीलाराम, सतपाल व करतारसिंह आदि जैसे भारी भरकम जाट इंसान भी थे। क्योंकि आज हमें विश्वास नहीं होता की रुस्तम जैसे 58 धड़ी वजनवाले जाट पहलवान इस धरती पर थे। यह पहलवान ईरान का रहनेवाला था जिसने भारत में रहकर पहलवानी का अभ्यास किया और संसार का एक महान् शक्तिशाली पहलवान हुआ, जिसके पिता जी का नाम जयलाल तथा दादा का नाम श्याम था, जिसका परिवार बाद में मुस्लिमधर्मी होगया। आज भी प्राचीन हरयाणा में एक कहावत प्रचलित है कि ‘‘इसा के तू राना सै’’ ये कहावत इसी रूस्तम पहलवान जो ईरान का रहनेवाला था को पहले ईराना कहा गया तथा समय आते ‘ई’ अक्षर लुप्त होगया और केवल ‘राना’ ही रह गया। इतिहासकारों ने ईरान को जाटों की दूसरी मां लिखा है। (Iran second mother of Jats-Historians)जाटनियां आपसी झगड़े के समय प्रायः ‘हिरकनी’ शब्द का इस्तेमाल करती हैं जो ईरानी भाषा का शब्द है। दूसरा जाटों में, ऐसा के तूं टीरी खां सै कहने का आम प्रचलन है। ये टीरी खां मैसोपोटामिया (बेबीलोन) के एक महान् जाट बादशाह हुए जो युद्ध में कभी नहीं हारे और मुस्लिम धर्मी हो गए थे। इसका सम्बन्ध भी ईरान से ही है। (पुस्तकें - हमारे खेल, हरयाणा के वीर यौधेय, पंचायती इतिहास तथा, 'Play and learn wrestling' आदि-आदि)।
कुलदीप पिलानिया बाँहपुरिया
बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

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