संदेश

जनवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चौ. छोटूराम जी पर एक विशेष रागनी ।।

छोटू (छोटूराम) ने सन् 1896 में सांपला के प्राईमरी स्कूल से बोर्ड की पांचवीं की परीक्षा पास करी। रोहतक जिले में प्रथम स्थान प्राप्त करके वजीफा लिया। यह खुशखबरी सुनाने के अपने पिता सुखिया के पास दौडा हुआ जाता है और क्या कहता है। ऊपरातली की रागनी। एक कली छोटू। दूसरी पिता सुखिया। मैं हुया पांचमी पास जिले में पहला आया सूं सिर पुचकार मेरा बाबू मैं वजीफा ल्यायाआसूं। मास्टर जी नैं खूब पढाया देकै ध्यान पिता। जिंदगी भर नां उतर सकै उसका एहसान पिता। उस धोरै हो आइये एक बै ले मेरी मान् पिता। मदद करणियां का चाहिए करणा सम्मान पिता। मोहनलाल जी की कृपा तैं मैं हुया सवाया सूं। 1। सिर पुचकार मेरा बाबू मैं वजीफा ल्याया सूं। चोखी बात करी रै छोटू मैं ऊंचा ठा दिया। कुटम कबीले सारे में मैं सिखर चढा दिया। तनैं जिसी करी थी मेहनत हर नैं फल पकड़ा दिया। आशिर्वाद मास्टर का बी सफल बणा दिया। पहल्यम जाण्या नहीं कदे मैं इसा सुख पाया सूं। 2। सिर पुचकार मेरा बाबू मैं वजीफा ल्याया सूं। इब और पढ़ाई आगे की मैं करणा चाहूं सूं। तालीम की किस्ति चढ कै जग तैं तिरणा चाहूं सूं । बणा मिसाल अपण्यां कै आगै धरणा

बल्लभगढ़ नरेश अमर बलिदानी राजा नाहर सिंह (विशेष जानकारी )

बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिहँ 1857की आजादी के महानायक जिन्होेने फाँसी चढ़कर देश के लिए अपना राजपाठ ही नही अपना सबकुछ बलिदान किया | आज बड़े फक्र की बात है कि उनको सर्व समाज द्वारा याद किया जा रहा है | जबकि सरकार शहीदों की अनदेखी कर रही है| 1857 की आजादी की लड़ाई जो अग्रेजों के खिलाफ पहली लड़ाई थी |इस लड़ाई में हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई और जाट कौम ने सभी ने धर्म व जाति से ऊपर उठकर राजा नाहर सिहँ की अगुआई में पूरे भारत में क्रान्ति का बिगुल बजाया | धोखे से अग्रेजों ने समझौता वार्ता कर राजा नाहर सिहँ और उनके सेनापति गुलाब सिहँ सैनी , खुशहाल सिहँ गुर्जर व भुरा सिहँ को धोखे से गिरफ्तार करके 9 जनवरी 1858 को दिल्ली के लाल किले के सामने चाँदनी चौक पर सरेआम फांसी पर लटका दिया गया | फांसी से पहले अपनी अतिंम इच्छा में जागरूकता का संदेश देते हुए कहा था कि मेरे मरने का मातम करने के बजाय क्रान्ति की इस ज्योति को अपने दिलों में जलाये रखना | #जय जाट योद्धेय... शत् शत् नमन 🙏 कुलदीप पिलानिया बाँहपुरिया बुलंदशहर उत्तर प्रदेश

जाटो की अमर कर देने वाली वीरगाथा ( Battle of Dograi )

Battle of dograi ये जटों की अमर करदेने वाली वीरता की गाथा है जो 21 /22सितम्बर 1965 को लड़ी गयी थी इस में पहले बंदूको से फिर ग्रेनेड और बाद में टोपी और हाथो से ये लड़ाई लड़ी गयी थी जिस में जाटों ने लाहौर के करीब dograi पर कब्ज़ा किया था ये लड़ाई संसार की 10 greatest battles में गिनी जाती है ये 3rd जाट रेजिमेंट के सिपाही थे और इसके leader Lt col Desmonde hayde थे और कमांडिंग अफसर col golwala थे इस लड़ाईमें 308 पाकिस्तानी फौजी मारे गए थे और 86 जट भारतीय फौजी श्ाहीद हुए थे ये लड़ाई 3rd jatts और 18th पंजाब रेजिमेंट के बीच हुई थी ये लड़ाई जब हुई तब 6 सितम्बर को dograi जो लाहौर से एक किलोमीटर दूर है उस पर 3 rd jat regiment ने कब्ज़ा कर लिया था और इस दौरान जो बाकि रसद और फ़ौज वहाँ नहीं भेजी जा पायी थी तो ये युद्ध 21 /22सितम्बर को dograi को जाटों ने अपने कब्जे में रखा इस लड़ाई का निशान लाहौर की सीमा का निशान जो जाट उखाड़ के लाये थेआज भी 3rd जट के musem में रखा है वो lt col Desmonde hayde ही थे उस वक्त अपनी बेजोड़ नेत्रत्व और जटों की बहादुरी की वजह से 1965 की जंग भारत जीत पाया एक पाकिस्तानी अफस

इतिहाश का महत्व ( इतिहाश चाहे किसी का हो वो उसका दर्पण होता है जो जानना पहचानना बहुत जरूरी है )

इतिहास का महत्त्व - इतिहास समाज का दर्पण है। किसी देश अथवा जाति के उत्थान-पतन, मान- सम्मान, उन्नति-अवनति आदि की पूर्ण व्याख्या उसके इतिहास को पढ़ने से हमको भलीभांति विदित हो जाती है। जिस देश या जाति को नष्ट करना हो तो उसके साहित्य को नष्ट करने से वह शताब्दियों तक पनप नहीं सकेगी। हमारे देश भारत के सम्बन्ध में यही बात बिल्कुल सत्य सिद्ध हुई है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि जिस जाति का जितना ही गौरवपूर्ण इतिहास होगा वह जाति उतनी ही सजीव होगी। इसी कारण विजेता जाति पराजित जाति के इतिहास को या तो बिल्कुल नष्ट करने का प्रयत्न करती है जैसा कि भारत के मुगल, पठान शासकों ने किया था अथवा ऐसे ढंग से लिख देती है जिससे उस जाति को अपने पूर्वजों पर गौरव करने का उत्साह न रहे। इतिहास का इसी प्रकार का स्वरूप प्रायः अंग्रेज लेखकों ने भारत के सामने पेश किया। इतिहास हमें यह बताता है कि हम कौन थे और आज क्या हो गए हैं। इससे हम कुछ सीखें और भविष्य में अपने को सुधारें। वे गलतियां जिनके कारण हमारा पतन हुआ, फिर न हों, इसका निरन्तर ध्यान रखें यही सीख हमें इतिहास से ग्रहण करनी चाहिये। इतिहा

ऋषिक व तुषार चन्द्रवंशी जाटवंश का इतिहाश (हूणों का आक्रमण; चीन की दीवार )

ऋषिक व् तुषार चन्द्रवँशी जाटवंश का इतिहाश (चीन की महान दीवार का इतिहाश) ऋषिक व तुषार चन्द्रवंशी जाटवंश प्राचीनकाल से प्रचलित हैं। बौद्धकाल में इनका संगठन गठवाला कहलाने लगा और मलिक की उपाधि मिलने से गठवाला मलिक कहे जाने लगे। लल्ल ऋषि इनका नेता तथा संगठन करने वाला था। इसी कारण उनका नाम भी साथ लगाया जाता है - जैसे लल्ल, ऋषिक-तुषार मलिक अथवा लल्ल गठवाला मलिक। चीनी इतिहासों में तुषारों और उनके पड़ौसी ऋषिकों को यूची या यूहेचि लिखा पाया गया है। इसका कारण सम्भवतः यह था कि ऋषिक तुषार दोनों वंशों ने सम्मिलित शक्ति से बल्ख से थियान्शान पर्वत, खोतन, कपिशा और तक्षशिला तक राज्यविस्तार कर लिया था। यह समय 175 ईस्वी पूर्व से 100 ईस्वी पूर्व तक का माना गया है। पं० जयचन्द्र विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास प्रवेश’ के प्रथम भाग में पृ० 112-113 पर जो नक्शा दिया है, तदनुसार “ऋषिक तुषार तक्षशिला से शाकल (सियालकोट), मथुरा, अयोध्या और पटना तक राज्य विस्तार करने वाली जाति (जाट) सिद्ध होती है।” इस मत के अनुसार प्राचीन काम्बोज देश हजारों वर्षों तक तुषार देश या तुखारिस्तान कहलाता रहा। जिस समय भारतवर्ष में स

महाराजा सूरजमल जी की मोत का बदला उनके पुत्र महाराजा जबाहर सिंह जी द्वारा

चित्र
महाराजा सूरजमल जी की धोके से म्रत्यु के बाद का इतिहाश (महाराजा सूरजमल जी का इतिहाश निचे comment में link में पढ़ सकते हैं) महाराजा की म्रत्यु का सन्देश जब भरतपुर पहुंचता है तो महारानी क्या कहती हैं अपने बेटे से :-----“तुम पगड़ी बांधे फिरते हो और वहां शाहदरा के झाऊओं में तुम्हारे पिता की पगड़ी उल्टी पड़ी है!” - महारानी किशोरी देवीएक जीत, सम्मान, शौर्य और प्रतापी तेज की भूखी शेरनी जाटणी का यही वो तान्ना था जिसने उनके सुपुत्र महाराजा जवाहर सिंह को भारतेंदु बना दिया।यही वो रूदन था जिसको सुन अपने पिता की अकस्मात मौत के बदले हेतु एक लाख सेना के साथ रणबांकुरे जवाहरमल ने सीधा दिल्ली पर हमला दे बोला।महाराजा सूरजमल की बहादुर रानी जिसने लाल किले की चढ़ाई में भाग लिया तथा पुष्कर में भी की जीत का कारण बनी तथा वहां जाट घाट बनवाया।जब 1763 में महाराजा सूरजमल शाहदरा के पास धोखे से मारे गये तो महारानी किशोरी (होडल के प्रभावशाली सोलंकी जाट नेता चौ. काशीराम की पुत्री) ने महाराजा जवाहर सिंह को एक ही ताने में यहकहकर कि "तुम पगड़ी बांधे फिरते हो और वहां शाहदरा के झाऊओं में तुम्हारे पिता की पगड़ी उल्

समरवीर गोकुला सिंह जी का सम्पूर्ण इतिहाश ।। ऐसे वीर को लाखो वार शत शत नमन

गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का सरदार था। 10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने इस्लाम धर्म को बढावा दिया और किसानों पर कर बढ़ा दिया। गोकुला ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की। अत्याचारी फौजदार अब्दुन्नवी का अन्त मई का महिना आ गया और आ गया अत्याचारी फौजदार का अंत भी. अब्दुन्नवी ने सिहोरा नामक गाँव को जा घेरा. गोकुलसिंह भी पास में ही थे। अब्दुन्नवी के सामने जा पहुंचे। मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी. फौजदार गोली प्रहार से मारा गया। बचे खुचे मुग़ल भाग गए। गोकुलसिंह आगे बढ़े और सादाबाद की छावनी को लूटकर आग लगा दी. इसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठ गयी कि आगरा और दिल्ली के महलों में झट से दिखाई दे गईं. दिखाई भी क्यों नही देतीं. साम्राज्य के वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनि