समरवीर गोकुला सिंह जी का सम्पूर्ण इतिहाश ।। ऐसे वीर को लाखो वार शत शत नमन


गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का सरदार था। 10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने इस्लाम धर्म को बढावा दिया और किसानों पर कर बढ़ा दिया। गोकुला ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की।

अत्याचारी फौजदार अब्दुन्नवी का अन्त

मई का महिना आ गया और आ गया अत्याचारी फौजदार का अंत भी. अब्दुन्नवी ने सिहोरा नामक गाँव को जा घेरा. गोकुलसिंह भी पास में ही थे। अब्दुन्नवी के सामने जा पहुंचे। मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी. फौजदार गोली प्रहार से मारा गया। बचे खुचे मुग़ल भाग गए। गोकुलसिंह आगे बढ़े और सादाबाद की छावनी को लूटकर आग लगा दी. इसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठ गयी कि आगरा और दिल्ली के महलों में झट से दिखाई दे गईं. दिखाई भी क्यों नही देतीं. साम्राज्य के वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनिशान मिट गया था। मथुरा ही नही, आगरा जिले में से भी शाही झंडे के निशाँ उड़कर आगरा शहर और किले में ढेर हो गए थे। निराश और मृतप्राय हिन्दुओं में जीवन का संचार हुआ। उन्हें दिखाई दिया कि अपराजय मुग़ल-शक्ति के विष-दंत तोड़े जा सकते हैं। उन्हें दिखाई दिया अपनी भावी आशाओं का रखवाला-एक पुनर्स्थापक गोकुलसिंह.[11]

शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा

इसके बाद पाँच माह तक भयंकर युद्ध होते रहे. मुग़लों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए. क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुलसिंह का वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ गया। अंत में सितंबर मास में, बिल्कुल निराश होकर, शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा कि[12]-

१. बादशाह उनको क्षमादान देने के लिए तैयार हैं।

२. वे लूटा हुआ सभी सामन लौटा दें.

३. वचन दें कि भविष्य में विद्रोह नहीं करेंगे.

गोकुलसिंह ने पूछा मेरा अपराध क्या है, जो मैं बादशाह से क्षमा मांगूगा ? तुम्हारे बादशाह को मुझसे क्षमा मांगनी चाहिए, क्योंकि उसने अकारण ही मेरे धर्म का बहुत अपमान किया है, बहुत हानि की है। दूसरे उसके क्षमा दान और मिन्नत का भरोसा इस संसार में कौन करता है?[13]

इसके आगे संधि की चर्चा चलाना व्यर्थ था। गोकुलसिंह ने कोई गुंजाइस ही नहीं छोड़ी थी। औरंगजेब का विचार था कि गोकुलसिंह को भी 'राजा' या 'ठाकुर' का खिताब देकर रिझा लिया जायेगा और मुग़लों का एक और पालतू बढ़ जायेगा. हिंदुस्तान को 'दारुल इस्लाम' बनाने की उसकी सुविचारित योजना निर्विघ्न आगे बढती रहेगी. मगर गोकुलसिंह के आगे उसकी कूट नीति बुरी तरह मात खा गयी। अत: औरंगजेब स्वयं एक बड़ी सेना, तोपों और तोपचियों के साथ, अपने इस अभूतपूर्व प्रतिद्वंदी से निपटने चल पड़ा. परम्पराएं और मर्यादा टूटने का यह एक ऐसा ज्वलंत और प्रेरक उदाहरण है, जिधर इतिहासकारों का ध्यान नहीं गया है।[14]

औरंगजेब २८ नवम्बर १६६९ को मथुरा पहुँचा

यूरोपीय यात्री मनूची के वृत्तांत के अनुसार पहले अकबर को जाना पड़ा था और अब औरंगजेब को, जिसका साम्राज्य न सिर्फ़ मुग़लों में ही बल्कि उस समय तक सभी हिंदू-मुस्लिम शासकों में सबसे बड़ा था। यह थी वीरवर गोकुलसिंह की महानता. दिल्ली से चलकर औरंगजेब २८ नवम्बर १६६९ को मथुरा जा पहुँचा। गोकुलसिंह के अनेक सैनिक और सेनापति जो वेतनभोगी नहीं थे, क्रान्ति भावना से अनुप्राणित लोग थे, रबी की बुवाई के सिलसिले में, पड़ौस के आगरा जनपद में चले गए थे।[15]

औरंगजेब ने अपनी छावनी मथुरा में बनाई और वहां से सम्पूर्ण युद्ध संचालन करने लगा. गोकुलसिंह को चारों ओर से घेरा जा रहा था। उसने एक और सेनापति हसन अली खाँ को एक मजबूत और सुसज्जित सेना के साथ मुरसान की ओर से भेजा. हसन अली खाँ ने ४ दिसम्बर १६६९ की प्रात: काल के समय अचानक छापा मारकर, जाटों की तीन गढ़ियाँ - रेवाड़ा, चंद्ररख और सरखरू को घेरलिया। शाही तोपों और बंदूकों की मार के आगे ये छोटी गढ़ियाँ ज्यादा उपयोगी सिद्ध न हो सकीं और बड़ी जल्दी टूट गयी।[16]

हसन अली खाँ की सफलताओं से खुश होकर औरंगजेब ने शफ शिकन खान के स्थान पर उसे मथुरा का फौजदार बना दिया. उसकी सहायता के लिए आगरा परगने से अमानुल्ला खान, मुरादाबाद का फौजदार नामदार खान, आगरा शहर का फौजदार होशयार खाँ अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आ पहुंचे . यह विशाल सेना चारों ओर से गोकुलसिंह को घेरा लगाते हूए आगे बढ़ने लगी. गोकुलसिंह के विरुद्ध किया गया यह अभियान, उन आक्रमणों से विशाल स्तर का था, जो बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आए थे। इस वीर के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, न अरावली की पहाड़ियाँ और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश. इन अलाभकारी स्थितियों के बावजूद, उन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथ, एक शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करके, बराबरी के परिणाम प्राप्त किए, वह सब अभूतपूर्व है।[17]
तिलपत युद्ध दिसंबर १६६९
दिसंबर १६६९ के अन्तिम सप्ताह में तिलपत से २० मील दूर, गोकुलसिंह ने शाही सेनाओं का सामना किया। जाटों ने मुग़ल सेना पर एक दृढ़ निश्चय और भयंकर क्रोध से आक्रमण किया। सुबह से शाम तक युद्ध होता रहा. कोई निर्णय नहीं हो सका. दूसरे दिन फ़िर घमासान छिड़ गया। जाट अलौकिक वीरता के साथ युद्ध कर रहे थे। मुग़ल सेना, तोपखाने और जिरहबख्तर से सुसज्जित घुड़सवार सेनाओं के होते हूए भी गोकुलसिंह पर विजय प्राप्त न कर सके. भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष, इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो. हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था। पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुलसिंह का युद्ध तीसरे दिन भी चला.[18]
तीसरे दिन, फ़िर भयंकर संग्राम हुआ। इसके बारे में एक इतिहासकार का कहना है कि जाटों का आक्रमण इतना प्रबल था कि शाही सेना के पैर उखड़ ही गए थे, परन्तु तभी हसन अली खाँ के नेतृत्व में एक नई ताजादम मुग़ल सेना आ गयी। इस सेना ने गोकुलसिंह की विजय को पराजय में बदल दिया. बादशाह आलमगीर की इज्जत बच गयी। जाटों के पैर तो उखड़ गए फ़िर भी अपने घरों को नहीं भागे. उनका गंतव्य बनी तिलपत की गढ़ी जो युद्ध क्षेत्र से बीस मील दूर थी। तीसरे दिन से यहाँ भी भीषण युद्ध छिड़ गया और तीन दिन तक चलता रहा. भारी तोपों के बीच तिलपत की गढ़ी भी इसके आगे टिक नहीं सकी और उसका पतन हो गया।[19]
गोकुलसिंह का वध
तिलपत के पतन के बाद गोकुलसिंह और उनके ताऊ उदयसिंह को सपरिवार बंदी बना लिया गया। उनके सात हजार साथी भी बंदी हुए. इन सबको आगरा लाया गया। औरंगजेब पहले ही आ चुका था और लाल किले के दीवाने आम में आश्वस्त होकर, विराजमान था। सभी बंदियों को उसके सामने पेश किया गया। औरंगजेब ने कहा -
"जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो. रसूल के बताये रास्ते पर चलो. बोलो क्या कहते हो इस्लाम या मौत?
अधिसंख्य जाटों ने कहा - "बादशाह, अगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना."[20]
अगले दिन गोकुलसिंह और उदयसिंह को आगरा कोतवाली पर लाया गया-उसी तरह बंधे हाथ, गले से पैर तक लोहे में जकड़ा शरीर. गोकुलसिंह की सुडौल भुजा पर जल्लाद का पहला कुल्हाड़ा चला, तो हजारों का जनसमूह हाहाकार कर उठा. कुल्हाड़ी से छिटकी हुई उनकी दायीं भुजा चबूतरे पर गिरकर फड़कने लगी. परन्तु उस वीर का मुख ही नहीं शरीर भी निष्कंप था। उसने एक निगाह फुव्वारा बन गए कंधे पर डाली और फ़िर जल्लादों को देखने लगा कि दूसरा वार करें. परन्तु जल्लाद जल्दी में नहीं थे। उन्हें ऐसे ही निर्देश थे। दूसरे कुल्हाड़े पर हजारों लोग आर्तनाद कर उठे. उनमें हिंदू और मुसलमान सभी थे। अनेकों ने आँखें बंद करली. अनेक रोते हुए भाग निकले. कोतवाली के चारों ओर मानो प्रलय हो रही थी। एक को दूसरे का होश नहीं था। वातावरण में एक ही ध्वनि थी- "हे राम!...हे रहीम !! इधर आगरा में गोकुलसिंह का सिर गिरा, उधर मथुरा में केशवरायजी का मन्दिर ![21]

कुलदीप पिलानिया बाँहपुरिया
बुलंदशहर उत्तर प्रदेश

टिप्पणियाँ

  1. ये जाट दादा गोकुल सिंह जी कि वीरता और बलिदान ही है जो कि जाट कौम को एक उस मुकाम पर लेके जाता है जहाँ सिर्फ जाट ही पहुँचते है मेरा उनको और वीर जाटों को नमन और जो कौम अपने इतिहास को याद रखेगी वो ही आगे ज

    जवाब देंहटाएं
  2. जी rama जी बिलकुल जो अपने इतिहाश का स्मरण करता रहा है वो ही आगे बढ़ा है ।।
    जय जट्टा

    जवाब देंहटाएं
  3. गोकुल सिंह जी, हागा चौधरी (अग्रे) जाट गोत्र से थे, ऐसे महान् जट योद्धा को सादर नमन।

    जवाब देंहटाएं
  4. गोकुल सिंह जी, हागा चौधरी (अग्रे) जाट गोत्र से थे, ऐसे महान् जट योद्धा को सादर नमन।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

Most viewed

राजस्थान के जाटो का इतिहाश व् उनका आपस में बैर

महाराजा सूरजमल जी की मोत का बदला उनके पुत्र महाराजा जबाहर सिंह जी द्वारा

जट अफलातून - महाराजा सूरजमल