ब्रिगेडियर होशियार सिंह राठी - 1962


ब्रिगेडियर होशियारसिंह (राठी गोत्री जाट) का 62वां ब्रिगेड शैला (Tsela) नामक स्थान पर तैनात था जो चीन को हर तरह से कारगर जवाब देने में सक्षम था। इसी बीच शायद लज्जा के कारण (वैसे नेहरू जी में लज्जा थी तो नहीं) नेहरू जी ने पंडित कौल साहब को फिर से मौर्चे पर धकेल दिया। जब ब्रिगेडियर होशियारसिंह तथा उसके मातहत कमांडर व सैनिक लड़ाई के लिए तैयार थे तो अचानक 17 नवम्बर की रात का को उनका आदेश मिला कि “वह अपना स्थान छोड़कर डिविजनल मुख्यालय दोरेरांग जोंग में पहुंचें” क्योंकि कौर कमांडर पंडित कौल तथा डिविजनल कमांडर मे. जनरल ए.एस. पठानिया (हिन्दू राजपूत डोगरा) को अपने-अपने मुख्यालयों की सुरक्षा की पड़ी थी। क्योंकि दोनों ही जनरल चीन से बुरी तरह भयभीत हो गये थे और वे ब्रिगेडियर होशियारसिंह की सुरक्षा पाकर अपने को सुरक्षित करने में लगे थे। वीर ब्रिगेडियर होशियारसिंह एक आदर्श कमांडर के तौर पर आदेश का पालन करते हुये अपने साथ दो कम्पनी लेकर रात में चलपड़े और दूसरे दिन प्रातः रास्ते में चीन के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुये। शुरु में तो ब्रिगेडियर होशियार सिंह राठी साहब पर लांछन लगे कि वे स्वयं लड़ाई का मैदान छोड़ भाग गये, लेकिन जब हकीकत सामने आने लगी तो दोनों जनरल एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने लगे। यही मूर्खतापूर्ण आदेश भारत की शर्मनाक हार का दूसरा कारण बना।
लड़ाई की समाप्ति पर ‘हैण्ड्रसन ब्रुक्स’ नाम से एक रिपोर्ट तैयार करवाई जिसके अनुसार जनरल कौल तथा जनरल पठानिया के बयान इस प्रकार हैं -जनरल कौल इसका दोष जनरल पठानिया पर इस प्रकार लगाते हैं - “शैला की लड़ाई की हार का एकमात्र कारण जनरल पठानिया हैं जिन्होंने अपना धैर्य खो दिया था और अपनी तथा अपने डिविजनल मुख्यालय की विशेष सुरक्षा के लिए होशियारसिंह ब्रिगेड को शैला से डिरोंग जोंग बुलाया।
”जनरल पठानिया कौल पर दोष इस प्रकार लगाते हैं -“होशियारसिंह का शैला छोड़ने का आदेश उस रात मैंने नहीं दिया, बल्कि पंडित कौल जी ने मुझे पहले बतलाया था कि होशियारसिंह को शैला छोड़कर अगले किसी हालात के लिए तैयार रहना चाहिये।”हम सभी जानते हैं कि सन् 1962 में चीन के साथ लड़ाई में हमारी शर्मनाक हार हुई थी। जब चीन ने ‘मैकमोहन लाइन’ को मानने से इंकार कर दिया तब भी पंडित नेहरू ने सन् 1954 में चीन के साथ ‘पंचशील’ समझौता किया। चीन हमारी सीमा के नजदीक सड़क बनाता रहा और अपनी सेना का जमावड़ा करता रहा। 21 अक्टूबर सन् 1959 को सी.आर.पी.एफ. के दस जवानों को हमारी जमीन पर शहीद कर दिया, जिनकी याद में इसी दिन आज हमारी सभी भारतीय पुलिस ‘शहीदी दिवस’ मनाती है। चीन ने अक्टूबर सन् 1960 से अगस्त 1962 तक भारतीय वायुसीमा का 52 बार उल्लंघन किया, इन सभी हालातों को देख कर हमारे पश्चिमी कमान के चीफ ले. जनरल दौलतसिंह (सिक्ख जाट) ने बार-बार दिल्ली मुख्यालय को पत्र लिखे लेकिन दिल्ली में पंडित नहेरू की मण्डली आर्मी चीफ जनरल पी.एन. थापर और रक्षासचिव सरीन आदि (दोनों ही हिन्दू खत्री पंजाबी) अपनी खिचड़ी पकाते रहे और उनकी एक बात भी नहीं सुनी और भारतीय फौज की हालत दिन-प्रतिदिन बदतर होती चली गई।
जब 20 सितम्बर 1962को चीन ने धोला पोस्ट पर कब्जा किया तो मामला संसद में गूँजा लेकिन नेफा में तैनात चौथी कोर के कमांडर ले. ज. बी. एम. कौल (कश्मीरी ब्राह्मण) बीमारी का बहाना बनाकर लड़ाई का मैदान छोड़कर दिल्ली पहुंच गये। यही कौल साहब पहले दिल्ली को सूचित करते रहे कि हमें चीन से किसी प्रकार का खतरा नहीं है। चीन हमें गोलियों से मार रहा था और हम उसका जवाब पत्र लिखकर दे रहे थे और साथ-साथ ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ का नारा भी लगाते रहे। यह जानकर आपको हैरानी होगी कि पं. नेहरू ने जुलाई 1962 के पहले 10 दिनों में कुल 378 पत्र चीन को लिखे थे। जहाँ जवाब गोलियों से देना था वहाँ पत्रों से दिया जा रहा था। ले. जनरल कौल जिसने कभी एक बटालियन (लगभग 1000 सैनिक) की कमान नहीं की थी उनको लड़ाई के मैदान में लगभग 27 हजार सैनिक कमान के लिए दे दिये। पं. नेहरू ने इन्हें नेफा में चौथी कोर का कमांडर बनाया था लेकिन दुर्भाग्य से बाद में चीन ने हमला कर दिया तो कौल साहब बुरे फंसे, वरना ये शेख अब्दुला की मुखबरी करके नेहरू के विश्वासपात्र बने थे। कौल साहब नेहरू के गोत्र भाई थे।
जाटिज्म आला जट
कुलदीप पिलानिया बाँहपुरिया
बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

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